आज फिर तुम हमसे...

आज फिर तुम हमसे मुखातिब हुए,
थी उलझने वो मुझसे छिपाते दिखें ...।।
थी नादान मैं तो, चलो मानती हूं,
की है गलतियां हजारों ये भी स्वीकारती हैं....।
जब बढ़ाया था हाथ मैंने, तो थामा क्यों...
जब लड़खड़ाईं थी मैं, तो संभाला क्यों....
आज फिर इन सवालों से बचते दिखे तुम...
थी उलझने वो मुझसे छिपाते दिखे तुम ........।।
थी मंजिल तुम्हारीं अगर कहीं और ,
थी खुशियां तुम्हारीं अगर कहीं और....।
फिर क्यों मंजिल हमारी खुद को बनाते दिखें तुम .....
थी उलझने वो मुझसे छिपाते दिखे तुम ....।।
था शौक जो तुम्हारा हमसे खेलना भर,
भरी महफिल में बदनाम करना गर ....।
फिर क्यों अपनी आंखों में आंसू छिपाते दिखे तुम,
थी उलझन वो मुझसे छिपाते दिखे तुम .....।।
आज फिर तुम हमसे मुखातिब हुए,

थी उलझने वो मुझसे छिपाते दिखें ...।।

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